Monday 28 January 2013

Rambha Shuk Samvad



रम्भा-शुक
रंभा रुपसुंदरी है और शुकदेवजी मुनि शिरोमणि ! रंभा यौवन और शृंगार का वर्णन करते नहीं थकती, तो शुकदेवजी ईश्वरानुसंधान का । दोनों के बीच हुआ संवाद अति सुंदर है;

रम्भा:
मार्गे मार्गे नूतनं चूतखण्डं
खण्डे खण्डे कोकिलानां विरावः ।
रावे रावे मानिनीमानभंगो
भंगे भंगे मन्मथः पञ्चबाणः ॥
हे मुनि ! हर मार्ग में नयी मंजरी शोभायमान हैं, हर मंजरी पर कोयल सुमधुर टेहुक रही हैं । टेहका सुनकर मानिनी स्त्रीयों का गर्व दूर होता है, और गर्व नष्ट होते हि पाँच बाणों को धारण करनेवाले कामदेव मन को बेचेन बनाते हैं ।
शुक:
मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः
सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः ।
कीर्तौ कीर्तौ नस्तदाकारवृत्तिः
वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः
हे रंभा ! हर मार्ग में साधुजनों का संग होता है, उन हर एक सत्संग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान सुनने मिलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चित्तवृत्ति भगवान के ध्यान में लीन होती है, और हर वक्त सच्चिदानंद का आभास होता है ।
तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं
वृन्दे वृन्दे तत्त्व चिन्तानुवादः ।
वादे वादे जायते तत्त्वबोधो
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः ॥
हर तीर्थ में पवित्र ब्राह्मणों का समुदाय विराजमान है । उस समुदाय में तत्त्व का विचार हुआ करता है । उन विचारों में तत्त्व का ज्ञान होता है, और उस ज्ञान में भगवान चंद्रशेखर शिवजी का भास होता है ।
रम्भा:
गेहे गेहे जङ्गमा हेमवल्ली
वल्यां वल्यां पार्वणं चन्द्रबिम्बम् ।
बिम्बे बिम्बे दृश्यते मीन युग्मं
युग्मे युग्मे पञ्चबाणप्रचारः ॥
हे मुनिवर ! हर घर में घूमती फिरती सोने की लता जैसी ललनाओं के मुख पूर्णिमा के चंद्र जैसे सुंदर हैं । उन मुखचंद्रो में नयनरुप दो मछलीयाँ दिख रही है, और उन मीनरुप नयनों में कामदेव स्वतंत्र घूम रहा है ।
शुकः
स्थाने स्थाने दृश्यते रत्नवेदी
वेद्यां वेद्यां सिद्धगन्धर्वगोष्ठी
गोष्ठयां गोष्ठयां किन्नरद्वन्द्वगीतं
गीते गीते गीयते रामचन्द्रः ॥
हे रंभा ! हर स्थान में रत्न की वेदी दिख रही है, हर वेदी पर सिद्ध और गंधर्वों की सभा होती है । उन सभाओं में किन्नर गण किन्नरीयों के साथ गाना गा रहे हैं । हर गाने में भगवान रामचंद्र की कीर्ति गायी जा रही है ।
रम्भा:
पीनस्तनी चन्दनचर्चिताङ्गी
विलोलनेत्रा तरुणी सुशीला
नाऽऽलिङ्गिता प्रेमभरेण येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! सुंदर स्तनवाली, शरीर पर चंदन का लेप की हुई, चंचल आँखोंवाली सुंदर युवती का, प्रेम से जिस पुरुष ने आलिंगन किया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।
शुक:
अचिन्त्य रूपो भगवान्निरञ्जनो
विश्वम्भरो ज्ञानमयश्चिदात्मा
विशोधितो येन ह्रदि क्षणं नो
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
जिसके रुप का चिंतन नहीं हो सकता, जो निरंजन, विश्व का पालक है, जो ज्ञान से परिपूर्ण है, ऐसे चित्स्वरुप परब्रह्म का ध्यान जिसने स्वयं के हृदय में किया नहीं है, उसका जन्म व्यर्थ गया
रम्भाः
कामातुरा पूर्णशशांक वक्त्रा
बिम्बाधरा कोमलनाल गौरा ।
नाऽऽलिङ्गिता स्वे ह्र्दये भुजाभ्यां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! भोग की ईच्छा से व्याकुल, परिपूर्ण चंद्र जैसे मुखवाली, बिंबाधरा, कोमल कमल के नाल जैसी, गौर वर्णी कामिनी जिसने छाती से नहीं लगायी, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुक:
चतुर्भुजः चक्रधरो गदायुधः
पीताम्बरः कौस्तुभमालया लसन् ।
ध्याने धृतो येन न बोधकाले
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! चक्र और गदा जिसने हाथ में लिये हैं, ऐसे चार हाथवाले, पीतांबर पहेने हुए, कौस्तुभमणि की माला से विभूषित भगवान का ध्यान, जिसने जाग्रत अवस्था में किया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया
रम्भा:  
विचित्रवेषा नवयौवनाढ्या
लवङ्गकर्पूर सुवासिदेहा
नाऽऽलिङ्गिता येन दृढं भुजाभ्यां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिराज ! अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों से सज्ज, लवंग कर्पूर इत्यादि सुगंध से सुवासित शरीरवाली नवयुवती को, जिसने अपने दो हाथों से आलिंगन दिया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।
शुक:
नारायणः पङ्कजलोचनः प्रभुः
केयूरवान् कुण्डल मण्डिताननः ।
भक्त्या स्तुतो येन न शुद्धचेतसा
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
कमल जैसे नेत्रवाले, केयूर पर सवार, कुंडल से सुशोभित मुखवाले, संसार के स्वामी भगवान नारायण की स्तुति जिसने एकाग्रचित्त होकर, भक्तिपूर्वक की नहीं, उसका जीवन व्यर्थ गया
रम्भा:
प्रियवंदा चम्पकहेमवर्णा
हारावलीमण्डितनाभिदेशा
सम्भोगशीला रमिता न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! प्रिय बोलनेवाली, चंपक और सुवर्ण के रंगवाली, हार का झुमका नाभि पर लटक रहा हो ऐसी, स्वभाव से रमणशील ऐसी स्त्री से जिसने भोग विलास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया
शुकः
श्रीवत्सलक्षाङ्कितह्रत्प्रदेशः
तार्क्ष्यध्वजः शार्ङ्गधरः परात्मा
न सेवितो येन नृजन्मनाऽपि
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
जिस प्राणी ने मनुष्य शरीर पाकर भी, भृगुलता से विभूषित ह्रदयवाले, धजा में गरुड वाले, और शाङ्ग नामके धनुष्य को धारण करनेवाले, परमात्मा की सेवा न की, उसका जन्म व्यर्थ गया
रम्भा:  
चलत्कटी नूपुरमञ्जुघोषा
नासाग्रमुक्ता नयनाभिरामा
न सेविता येन भुजङ्गवेणी
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! चंचल कमरवाली, नूपुर से मधुर शब्द करनेवाली, नाक में मोती पहनी हुई, सुंदर नयनों से सुशोभित, सर्प के जैसा अंबोडा जिसने धारण किया है, ऐसी सुंदरी का जिसने सेवन नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ गया ।
शुक:
विश्वम्भरो ज्ञानमयः परेशः
जगन्मयोऽनन्तगुण प्रकाशी
आराधितो नापि वृतो न योगे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! संसार का पालन करनेवाले, ज्ञान से परिपूर्ण, संसार स्वरुप, अनंत गुणों को प्रकट करनेवाले भगवान की आराधना जिसने नहीं की, और योग में उनका ध्यान जिसने नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ गया
रम्भा:
ताम्बूलरागैः कुसुम प्रकर्षैः
सुगन्धितैलेन च वासितायाः
न मर्दितौ येन कुचौ निशायां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! सुगंधी पान, उत्तम फूल, सुगंधी तेल, और अन्य पदार्थों से सुवासित कायावाली कामिनी के कुच का मर्दन, रात को जिसने नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुकः
ब्रह्मादि देवोऽखिल विश्वदेवो
मोक्षप्रदोऽतीतगुणः प्रशान्तः
धृतो न योगेन हृदि स्वकीये
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
ब्रह्मादि देवों के भी देव, संपूर्ण संसार के स्वामी, मोक्षदाता, निर्गुण, अत्यंत शांत ऐसे भगबान का ध्यान जिसने योग द्वारा हृदय में नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।
रम्भाः
कस्तूरिकाकुंकुम चन्दनैश्च
सुचर्चिता याऽगुरु धूपिकाम्बरा ।
उरः स्थले नो लुठिता निशायां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
कस्तूरी और केसर से युक्त चंदन का लेप जिसने किया है, अगरु के गंध से सुवासित वस्त्र धारण की हुई तरुणी, रात को जिस पुरुष की छाती पर लेटी नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया
शुकः
आनन्दरुपो निजबोधरुपः
दिव्यस्वरूपो बहुनामरपः
तपः समाधौ मिलितो न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! आनंद से परिपूर्ण रुपवाले, दिव्य शरीर को धारण करनेवाले, जिनके अनेक नाम और रुप हैं ऐसे भगवान के दर्शन जिसने समाधि में नहीं किये, उसका जीवन व्यर्थ गया
रम्भा:
कठोर पीनस्तन भारनम्रा
सुमध्यमा चञ्जलखञ्जनाक्षी ।
हेमन्तकाले रमिता न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
जिस पुरुष ने हेमंत ऋतु में, कठोर और भरे हुए स्तन के भार से झुकी हुई, पतली कमरवाली, चंचल और खंजर से नैनोंवाली स्त्री का संभोग नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया
शुकः
तपोमयो ज्ञानमयो विजन्मा
विद्यामयो योगमयः परात्मा ।
चित्ते धृतो नो तपसि स्थितेन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! तपोमय, ज्ञानमय, जन्मरहित, विद्यामय, योगमय परमात्मा को, तपस्या में लीन होकर जिसने चित्त में धारण नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया
रम्भाः  
सुलक्षणा मानवती गुणाढ्या
प्रसन्नवक्त्रा मृदुभाषिणी या
नो चुम्बिता येन सुनाभिदेशे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! सद्लक्षण और गुणों से युक्त, प्रसन्न मुखवाली, मधुर बोलनेवाली, मानिनी सुंदरी के नाभि का जिसने चुंबन नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुकः
पल्यार्जितं सर्वसुखं विनश्वरं
दुःखप्रदं कामिनिभोग सेवितम् ।
एवं विदित्वा न धृतो हि योगो
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! जिस इन्सान ने, नारी के सेवन से उत्पन्न सब सुख नाशवंत, और दुःखदायक है ऐसा जानने के बावजुद जिसने योगाभ्यास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया
रम्भा:
विशालवेणी नयनाभिरामा
कन्दर्प सम्पूर्ण निधानरुपा ।
भुक्ता न येनैव वसन्तकाले
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
जिस पुरुष ने वसंत ऋतु में लंबे बालवाली, सुंदर नेत्रों से सुशोभित कामदेव के समस्त भंडाररुप ऐसी कामिनी के साथ विहार न किया हो, उसका जीवन व्यर्थ गया
शुकः
मायाकरण्डी नरकस्य हण्डी
तपोविखण्डी सुकृतस्य भण्डी ।
नृणां विखण्डी चिरसेविता चेत्
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! नारी माया की पटारी, नर्क की हंडी, तपस्या का विनाश करनेवाली, पुण्य का नाश करनेवाली, पुरुष की घातक है; इस लिए जिस पुरुष ने अधिक समय तक उसका सेवन किया है, उसका जीवन व्यर्थ गया
रम्भाः
समस्तशृङ्गार विनोदशीला
लीलावती कोकिल कण्ठमाला ।
विलासिता नो नवयौवनेन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! जिस पुरुष ने अपनी युवानी में, समस्त शृंगार और मनोविवाद करने में चतुर और अनेक लीलाओं में कुशल और कोकिलकंठी कामिनी के साथ विलास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है
शुक:
समाधि ह्रंत्री जनमोहयित्री
धर्मे कुमन्त्री कपटस्य तन्त्री ।
सत्कर्म हन्त्री कलिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
समाधि का नाश करनेवाली, लोगों को मोहित करनेवाली, धर्म विनाशिनी, कपट की वीणा, सत्कर्मो का नाश करनेवाली नारी का जिसने सेवन किया, उसका जीवन व्यर्थ गया
रम्भा:  
बिल्वस्तनी कोमलिता सुशीला
सुगन्धयुक्ता ललिता च गौरी ।
नाऽऽश्लेषिता येन च कण्ठदेशे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिराज ! बिल्वफल जैसे कठिन स्तन है, अत्यंत कोमल जिसका शरीर है, जिसका स्वभाव प्रिय है, ऐसी सुवासित केशवाली, ललचानेवाली गौर युवती को जिसने आलिंगन नहीं दिया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुक:
चिन्ताव्यथादुःखमया सदोषा
संसारपाशा जनमोहकर्त्री ।
सन्तापकोशा भजिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
चिंता, पीडा, और अनेक प्रकार के दुःख से परिपूर्ण, दोष से भरी हुई, संसार में बंधनरुप, और संताप का खजाना, ऐसी नारी का जिसने सेवन किया उसका जन्म व्यर्थ गया ।
रम्भा:
आनन्द कन्दर्पनिधान रुपा
झणत्क्वणत्कं कण नूपुराढ्या ।
नाऽस्वादिता येन सुधाधरस्था
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे मुनिवर ! आनंद और कामदेव के खजाने समान, खनकते कंगन और नूपुर पहेनी हुई कामिनी के होठ पर जिसने चुंबन किया नहीं, उस पुरुष का जीवन व्यर्थ है
शुक:
कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा
विण्मूत्र दुर्गन्धदरी दुराशा ।
संसेविता येन सदा मलाढ्या
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
छल-कपट करनेवाली, लोगों को बनानेवाली, विष्टा-मूत्र और दुर्गंध की गुफारुप, दुराशाओं से परिपूर्ण, अनेक प्रकार से मल से भरी हुई, ऐसी स्त्री का सेवन जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है
रम्भाः  
चन्द्रानना सुन्दरगौरवर्णा
व्यक्तस्तनीभोगविलास दक्षा
नाऽऽन्दोलिता वै शयनेषु येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! चंद्र जैसे मुखवाली, सुंदर और गौर वर्णवाली, जिसकी छाती पर स्तन व्यक्त हुए हैं ऐसी, संभोग और विलास में चतुर, ऐसी स्त्री को बिस्तर में जिसने आलिंगन नहीं दिया, उसका जीवन व्यर्थ    है ।
शुक:    
उन्मत्तवेषा मदिरासु मत्ता
पापप्रदा लोकविडम्बनीया ।
योगच्छला येन विभाजिता
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! पागल जैसा विचित्र वेष धारण की हुई, मदिरा पीकर मस्त बनी हुई, पाप देनेवाली, लोगों को बनानेवाली, और योगीयों के साथ कपट करनेवाली स्त्री का सेवन जिसने किया है, उसका जीवन व्यर्थ है ।
रम्भा:  
आनन्दरुपा तरुणी नगाङ्गी
सद्धर्मसंसाधन सृष्टिरुपा
कामार्थदा यस्य गृहे न नारी
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! आनंदरुप, नतांगी युवती, उत्तम धर्म के पालन में और पुत्रादि पैदा करने में सहायक, इंद्रियों को संतोष देनेवाली नारी जिस पुरुष के घर में न हो, उसका जीवन व्यर्थ है ।
शुक:    
अशौचदेहा पतित स्वभावा
वपुःप्रगल्भा बललोभशीला
मृषा वदन्ती कलिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
अशुद्ध शरीरवाली, पतित स्वभाववाली, प्रगल्भ देहवाली, साहस और लोभ करानेवाली, झूठ बोलनेवाली, ऐसी नारी का विश्वास जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है
रम्भा:
क्षामोदरी हंसगतिः प्रमत्ता
सौंदर्यसौभाग्यवती प्रलोला
न पीडिता येन रतौ यथेच्छं
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! पतली कमरवाली, हंस की तरह चलनेवाली, प्रमत्त सुंदर, सौभाग्यवती , चंचल स्वभाववाली स्त्री को रतिक्रीडा के वक्त अनुकुलतया पीडित की नहीं है, उसका जीवन व्यर्थ है ।
शुक:
संसारसद्भावन भक्तिहीना
चित्तस्य चौरा हृदि निर्दया च ।
विहाय योगं कलिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! संसार की उत्तम भावनाओं को प्रकट करनेवाले प्रेम से रहित पुरुषों के चित्त को चोरनेवाली, ह्रदय में दया न रखनेवाली, ऐसी स्त्री का आलिंगन, योगाभ्यास छोडकर जिस पुरुष ने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।
रम्भा:
सुगन्धैः सुपुष्पैः सुशय्या सुकान्ता
वसन्तो ऋतुः पूर्णिमा पूर्णचन्द्रः ।
यदा नास्ति पुंस्त्वं नरस्य प्रभूतं
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
हे मुनिवर ! सुंदर, सुगंधित पुष्पों से सुशोभित शय्या हो, मनोनुकूल सुंदर स्त्री हो, वसंत ऋतु हो, पूर्णिमा के चंद्र की चांदनी खीली हो, पर यदि पुरुष में परिपूर्ण पुरुषत्त्व न हो तो उसका जीवन व्यर्थ है ।
शुक:
सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रं
धनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचित्रम् ।
हरस्याङ्घि युग्मे मनश्चेदलग्नं
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
हे रंभा ! सुंदर शरीर हो, युवा पत्नी हो, मेरु पर्वत समान धन हो, मन को लुभानेवाली मधुर वाणी हो, पर यदि भगवान शिवजी के चरणकमल में मन न लगे, तो जीवन व्यर्थ है ।

5 comments:

  1. Sir,

    This is wonderful. Could you please give name of the author of this kavya? or its source, if it is part of a Purana or some larger work?

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  2. Mr Bhat has done a great job by uploading this piece of poem.All Sanskrit lovers should be grateful to him.

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  3. Rambha shukh samwad bahut Dino se padhne Ki lalsa thi Jo Bhatt ji ne pura kiya, unse meta niwedan hai Ki audio bhi upload kre sandhi viched ke sath

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  4. यह पुस्तक मैंने लगभग 54 वर्ष पूर्व बचपन में अपने चाचा जी के पास देखी व पढी़ थी|तब से पुनः पढ़ने की प्रबल इत्छा थी किंतु उपलब्ध न हो सकी|आज मैंने किसी प्रसंग में ह्वाट्स अप पर इसका जिक्र किया तो ग्रुप के एक सम्मानित यदस्य ने नेट पर खोज कर यह लिंक दिया|पढ़कर बहुत अच्छा लगा और अंततोगत्वा मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा-- *"धर्मार्थकामाःसम सेव्यमानाःएको हि भजते स नरः जघन्यः"*अर्थात गीता के शब्दों में "युक्ताहारविहारस्य...",पंत जी के शब्दों में "छोड़कर जीवन के अतिवाद |मध्यपथ से लो सुगति सुघार||"कालिदास के शब्दों में "न खरो न भूयसा मृदुः|"भहवान बुद्ध के शब्दों में"वीणा के तार इतने मत खींचो कि वह टूट जाए और इतने ढीले भी मत छोडो़ कि उसमें से स्वर ही न निकले|अतः"योगस्थ भोगस्थ करस्थ एव" "जोग भोग महँ राखेहु होई"(तुलसीदास)अतः हमें अपने जीवन में संतुलन व सामञ्जस्य स्थापित करते हुए मध्यम मार्ग का अनुकरण करना चाहिए ताकि दोनों में चाहे जो सच हो ,हम उससे वञ्चित न रह जाएँ|इस अंमूल्य साहित्य रत्न को उपलब्ध कराने के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं|आशा है भविष्य में भी आप ऐसे अमूल्य रत्न खोजकर सर्वजनहिताय प्रेषित कर अनुग्रहीत करते रहेंगे|यह बचपन में एक पतली सी पुस्तक के रूप में पढा़ था जिसका मूल श्रोत अद्यावधिपर्यंत मुझे ज्ञात न हो सका|भाषा-शैली बेजोड़ है|श्रृंगार और वैराज्ञ का अद्भुत संवाद
    रम्भा और शुक के माघ्यम से|

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